कुछ लकीरे ऐसी भी
कुछ आड़ी तिरछी लकीरे जो उठती है मेरे जहन में
कुछ अजीब से अक्श बना जाती है मेरे जिगर में
जब जोड़ने लगता हूँ उनको तो बिखर जाती है
जब तकता हूँ हैरान सा उनको
तो मेरी बेबसी पर वो खिलखिलाती है
नही जानता क्या शक्ल लेना चाहती है वो
नही जानता की कोई है भी के नही वो
ये भी नही जानता की कभी कोई शक्ल भी बन पायेगी
ये भी नही जानता कि
कभी मेरी नजर के सामने भी वो आएगी
बस ये एक अहसास है
जो मुझे तन्हाईयो से बचाये रखता है
मेरी तन्हा जिंदगी में उम्मीदों की शमा जलाये रखता है
तुम लकीरे हो या शख्सियत
ये बेमायने हे मेरे लिए
तुम कुछ भी हो बस मेरी हो
बस मेरी ये ही अहम है मेरे लिए।
निवेदक प्रवीन झाँझी